कृष्ण के मंदिर: भक्ति, प्रेम और संस्कृति की अद्भुत यात्रा

श्रीकृष्ण जन्मभूमि मंदिर, मथुरा, उत्तर प्रदेश

हमारी यात्रा की शुरुआत वहीं से होती है जहां सब कुछ शुरू हुआ, मथुरा। यमुना किनारे बसा यह पवित्र शहर कृष्ण की जन्मस्थली है। कहते हैं, इस नगरी का हर कण कृष्णमय है। जब आप श्रीकृष्ण जन्मभूमि मंदिर में प्रवेश करते हैं, तो यह सिर्फ़ एक मंदिर नहीं लगता, यह समय में पीछे लौट जाने का अनुभव है। मंदिर के गर्भगृह में पहुंचते ही एक अद्भुत शांति आपको घेर लेती है। मानो आप उसी पल में हों जब वसुदेव ने जेल की कोठरी में नन्हे कृष्ण को देखा था। बाहर निकलते ही आपको यमुना घाट की ओर जाने का मन होगा। शाम की आरती के समय, दीपों की रौशनी और भजनों की धुन में यमुना की लहरें भी जैसे झूमने लगती हैं।
जन्माष्टमी का जादू:
मथुरा में जन्माष्टमी मानो स्वर्ग का Worth हो। मंदिर को फूलों और रोशनी से सजाया जाता है, भजन और कीर्तन पूरी रात चलते हैं और ठीक मध्यरात्रि में भगवान का जन्मोत्सव धूमधाम से मनाया जाता है। उस पल घंटियों की आवाज़, शंखनाद और जयकारों से पूरा शहर गूंज उठता है।
बांके बिहारी मंदिर, वृंदावन, उत्तर प्रदेश

मथुरा से बस कुछ किलोमीटर दूर है वृंदावन, राधा-कृष्ण के प्रेम का शहर। वृंदावन की संकरी गलियों में चलते-चलते आप महसूस करेंगे कि यहां हर दरवाज़ा, हर मोड़, हर भजन की धुन राधा-कृष्ण की कहानी कहती है।
बांके बिहारी मंदिर में प्रवेश करते ही आपको एक अनोखा अनुभव होता है। यहां भगवान के दर्शन का तरीका ही अलग है। पर्दा बार-बार हटाया और लगाया जाता है, ताकि भक्तों का ध्यान एकटक भगवान के चरणों में रहे।
जन्माष्टमी का जादू:
वृंदावन में जन्माष्टमी पर मंदिरों को दुल्हन की तरह सजाया जाता है। जगह-जगह रासलीला का मंचन होता है, जहां कलाकार राधा-कृष्ण की लीलाओं को जीवंत कर देते हैं। रात भर कीर्तन, नृत्य और भजन का माहौल रहता है। प्रेम मंदिर में रंग-बिरंगी लाइटिंग के बीच होने वाले कार्यक्रम देखने लायक होते हैं।
द्वारकाधीश मंदिर, द्वारका, गुजरात

उत्तर प्रदेश से निकलकर हम चलते हैं पश्चिम की ओर। गुजरात के समुद्री किनारे पर बसे द्वारका। यह वह जगह है जिसे श्रीकृष्ण की राजधानी कहा जाता है। द्वारकाधीश मंदिर अरब सागर के किनारे स्थित है, और इसका शिखर आसमान को छूता हुआ लगता है। द्वारका शहर से कुछ दूरी पर बेट द्वारका है जिसे कृष्ण की असली राजधानी बताया जाता है। यह वही द्वारका है जो पानी में डूब गई। हालांकि आज भी यहां उस वक़्त के कुछ अवशेष मौजूद हैं।
जन्माष्टमी का जादू:
द्वारका में जन्माष्टमी के दौरान समुद्र किनारे का माहौल ही अलग हो जाता है। मंदिर में विशेष झंकियां सजती हैं और रात भर कीर्तन चलता है। जैसे ही मध्यरात्रि होती है, समुद्र की लहरें भी मानो जयकारों में शामिल हो जाती हैं।
जगन्नाथ मंदिर, पुरी, ओडिशा

पुरी का जगन्नाथ मंदिर ओडिशा के सबसे प्रसिद्ध और पवित्र मंदिरों में से एक है, जो भगवान श्रीकृष्ण (जगन्नाथ), उनके बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा को समर्पित है। 12वीं शताब्दी में निर्मित यह मंदिर अपनी विशाल संरचना, अद्भुत नक्काशी और समुद्री हवाओं के बीच भी ध्वज के हमेशा विपरीत दिशा में लहराने जैसे रहस्यों के लिए प्रसिद्ध है। यहां हर साल आयोजित होने वाली रथ यात्रा विश्वभर के भक्तों को आकर्षित करती है, जिसमें तीनों देवताओं की भव्य शोभायात्रा निकाली जाती है। यह मंदिर न सिर्फ़ आस्था का केंद्र है, बल्कि भारतीय संस्कृति, कला और रहस्य का अद्वितीय संगम भी है।
जन्माष्टमी का जादू:
यहां जन्माष्टमी पर भजन-संध्या, झांकी का आयोजन और विशेष महाप्रसाद का वितरण होता है। मंदिर के गर्भगृह में सजावट इतनी भव्य होती है कि भक्त मंत्रमुग्ध हो जाते हैं।
गुरुवायूर मंदिर, केरल

केरल के त्रिशूर ज़िले में स्थित गुरुवायूर मंदिर को दक्षिण का द्वारका कहा जाता है। यहां भगवान कृष्ण की आराधना गुरुवायूरप्पन के रूप में होती है। मान्यता है कि मंदिर में स्थापित कृष्ण की यह मूर्ति स्वयं द्वारका से लाई गई थी, जिसे गुरु वायु और बृहस्पति ने यहां स्थापित किया। यह मूर्ति बालक कृष्ण के रूप में है, जिसमें वे चार हाथों में शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण किए हुए हैं। मंदिर का वातावरण अत्यंत भक्तिमय है। यहां हर दिन हज़ारों श्रद्धालु दर्शन के लिए आते हैं, ख़ासकर कृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर।
जन्माष्टमी का जादू:
गुरुवायूर में जन्माष्टमी को गोकुलाष्टमी कहा जाता है। इस दिन बच्चों को कृष्ण के वेश में सजाकर मंदिर में लाया जाता है। पारंपरिक नृत्य और गीत पूरे मंदिर परिसर में गूंजते हैं।
उदुपी श्रीकृष्ण मंदिर, कर्नाटक

कर्नाटक के उदुपी में स्थित श्रीकृष्ण मंदिर अपनी अनोखी दर्शन पद्धति के लिए जाना जाता है। यहां भक्त सीधे गर्भगृह में प्रवेश करके दर्शन नहीं करते, बल्कि कनकना किंडी नाम की एक छोटी-सी जालीदार खिड़की से भगवान के दर्शन करते हैं। मान्यता है कि भक्त कवि कनकदास को भगवान ने इसी खिड़की से दर्शन दिए थे और तभी से यह परंपरा शुरू हुई। खिड़की से दिखाई देने वाली श्रीकृष्ण की बाल रूपी मूर्ति पश्चिम की ओर है जबकि अधिकांश मंदिरों में मूर्ति पूर्वमुखी होती है। यह अनूठी परंपरा भक्तों में गहरा भाव और भक्ति का अनुभव जगाती है।
जन्माष्टमी का जादू:
उदुपी में जन्माष्टमी पर मोरे कुडी और गोपाल काला जैसी परंपराएं होती हैं, जहां भक्त दूध, दही और माखन का भोग लगाते हैं और फिर आनंदपूर्वक खेलते हैं।
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