प्रभु राम की नगरी अयोध्या का जिक्र आते ही आपके दिमाग में सबसे पहले क्या खयाल आता है? सरयू का घाट, हनुमानगढ़ी, कनक भवन और राम मंदिर सब जैसे नज़र के सामने घूमने लगता हो।पिछले कई महीनों या कहें सालों से अयोध्या जाने का प्लान बनता, हर बार किसी न किसी वजह से कैंसिल हो जाता, लेकिन इस बार तो हमने ठान ही लिया था कि चाहे जो हो जाए अयोध्या जाकर ही रहेंगे। फिर क्या सुबह चार बजे लखनऊ से अयोध्या के लिए निकल पड़े, हमारे बड़े बुजुर्ग भी कहते आए हैं कि जो भी करना है भोर में उठकर ही करना है। सुबह-सुबह हाइवे के दो तरफ खेतों में गेहूं की पकती बालियां, सरसों के कटते खेत, घोसलों को छोड़कर उड़ती चिड़िया और कहीं-कहीं पर सिर पर गठ्ठर उठाए महिलाएं भी दिखीं, उस दिन लगा कि जैसे सारी दुनिया हमें अयोध्या जाने के लिए विदा करने के लिए आ गई हो। कई घंटों के सफर के बाद आखिरकार हम अयोध्या पहुंच गए, अयोध्या बिल्कुल नई सी लग रही थी क्योंकि मैं सालों बाद यहां आयी थी। पिछले कुछ सालों में बहुत कुछ बदल गया था, मैंने खुद से कहा कि अब हम असली अयोध्या पहुंचे हैं।राम की नगरी में आने के बाद मन जैसे शांत हो गया हो। कोई उथल- पुथल नहीं थी दिमाग में बस जैसे कोई वैरागी स्थिर हो जाता है वैसे ही मैं बिल्कुल स्थिर थी। मंदिरों और दुकानों को पार करते हुए हम सीधे सरयू नदी के तट पर पहुंच गए, वो नदी जिसका उल्लेख रामायण में भी मिलता है। नदी तट पर पहुंचते ही हम कई घंटों तक नदी में नहाते रहे क्योंकि गर्मी और धूप से बचने का ये सबसे बेहतरीन तरीका था। सरयू में डुबकी लगाते ही ऐसे लगा कि जैसे कई महीनों की थकान आज मिट गई हो, हम अपने दुख परेशानी सब नदी में बहा आए हों। सारे पाप, दुख, दर्द को सरयू ने हमसे बिल्कुल वैसे ले लिया हो जैसे मां अपने बच्चे से उसकी तकलीफें ले लेती है।
नदियां, पहाड़, समंदर सब घूम चुके थे हम, अब मन था किसी रेगिस्तान के सफर का। रेत के टीलों के पीछे से उगते और डूबते सूरज को निहारने का। दिसम्बर, जनवरी में कोरोना का प्रकोप भी काफी हद तक कम हो चुका था तो सोचा कि क्यों न इस बार जैसलमेर के सफर पर निकला जाए, लेकिन जो आप सोचते हैं, वह पूरा हो जाए तो जिंदगी जन्नत ही न बन जाए? बहुत सारी प्लानिंग्स के बाद भी हमारा जैसलमेर जाने का ख्वाब पूरा न हो पाया। मन बड़ा ही दुखी था। इसलिए भी कि अब एक साल और इंतजार करना पड़ेगा दोबारा इस ख्वाहिश को मुकम्मल करने की जद्दोजहद के लिए, क्योंकि जनवरी के बाद जैसलमेर की गर्मी तो हम सह नहीं पाते। ख़ैर, इन सर्दियों को ऐसे तो नहीं जाने देना था तो सोचा कि क्यों न छोटे से रेगिस्तान का ही सफर कर लिया जाए। अब हमने तय किया कि हम अजमेर और पुष्कर तो घूम कर आएंगे ही। जयपुर से इस यात्रा को शुरू होना था। फरवरी महीने के एक शनिवार को सुबह हमने बैग पैक किए और निकल पड़े अजमेर के लिए। जयपुर से अजमेर का रास्ता शानदार है। वहां तक पहुंचने में हमें 2 घंटे का ही समय लगा, लेकिन पहुंचते-पहुंचते भूख लग गई थी तो सोचा कि पहले कुछ खा लिया जाए और फिर दरगाह में दर्शन किए जाएं। अजमेर शहर वैसे तो खूबसूरत है, पहाड़ियां हैं, झील है, लेकिन भीड़ बहुत है। पेट पूजा करने के बाद हमने दरगाह की ओर रुख किया।
आपने कभी कहीं किसी कहानी में पढ़ा होगा कि अगर किसी चीज़ को शिद्दत से चाहो तो पूरी कायनात उसे तुमसे मिलाने में लग जाती है। ये लाइन पढ़ने के बाद अगर अचानक शाहरुख़ खान याद आ जाए तो भी चलेगा। बात इतनी सी है कि अगर आप कुछ ठान लेते हैं तो उस बात को पूरा होना ही होता है। ऐसी ही थी मेरी पहाड़ों में जाने की चाहत, हालांकि अब इसमें आप सोच सकते हैं कि ये कैसी चाहत है जिसके लिए कायनात लगानी पड़ रही है तो जान लीजिये कि मन की ये चाहत कोरोना के समय में जागी थी। तब, जब दुनिया अपने घरों में थी, सब कुछ रुक गया था। सड़कें खाली, आसमान साफ़ और चिड़ियों की आवाज़ सुनाई दे रही थी। शोर नहीं था।
हर किसी की जिंदगी में यात्राओं के मायने अलग होते हैं। कोई नई जगहों को देखना चाहता है तो कोई कुछ नया सीखना चाहता है, लेकिन मेरी लिए यात्राएं हमेशा मुझे खुद से मिलाती हैं। दुनिया भर के तनाव, उलझन, काम और जिम्मेदारियों से जब ऊबने लगती हूं तो खुद को तलाशने निकल पड़ती हूं एक यात्रा पर और यकीन मानिए मैं हर बार कामयाब होती हूं। कुछ महीनों की पॉजिटिव एनर्जी का कोटा लेकर वापस आती हूं और जैसे ही ये खत्म होने लगती हैं, दूसरे सफर की तैयारी शुरू कर देती हूं। इस बार मन था पहाड़ों से हटकर कहीं और सुकून तलाशने का, बारिश में जमकर भीगने का, हरे-भरे जंगलों में बेखौफ होकर टहलने का और संमदर किनारे घंटों बैठकर अपनी मनपसंद लेखिका की कहानियों में खोने का।प्लान तो एक महीने पहले ही बन चुका था महाराष्ट्र जाने का और इस बार भी हमेशा की तरह मैं सिर्फ लड़कियों के साथ जाना चाहती थी। यहां आप मुझे दकियानूसी ख्यालात का मत समझिएगा इसके पीछे मेरा मकसद सिर्फ इस बात को सिरे से नकारने का रहता है कि बिना किसी लड़के के हम नई जगहों पर सुरक्षित यात्रा नहीं कर सकते। आप यूं कह सकते हैं कि फेमिनिज्म का पलड़ा यहां भी थोड़ा हावी था। लगातार टीवी और अखबारों में महाराष्ट्र की बारिश और बाढ़ की खबरें पढ़कर एक बार को मन थोड़ा घबराया लेकिन फिर सोचा अब जो होगा वहीं देखा जाएगा। मेरे साथ जाने के लिए पुरानी कलीग दिति और मेरी छोटी बहन अंजलि तैयार थीं, हमारे टिकट हो चुके थे और हम इस खूबसूरत सफर पर कई सारी प्लानिंग ये करेंगे वो करेंगे के साथ निकल पड़े थे। ट्रेन रात 7 बजकर 45 मिनट की थी और हमें स्टेशन पहुंचने में देर हो रही थी, ऐसा लगा कि सब चौपट होने वाला है, ट्रेन अगर छूट गई तो क्या होगा। हमने कैब ड्राइवर से किसी भी तरह स्टेशन पहुंचाने के लिए कहा इसपर वो हंसकर बोला जाने की इतनी एक्साइटमेंट थी तो कम से कम घर से टाइम से निकलतीं। स्टेशन पर पहुंचते-पहुंचते सिग्नल हो चुका था और ट्रेन चल पड़ी थी, हमें आगे जो डिब्बा मिला उसी पर चढ़ गए और एक बार भगवान को शुक्रिया अदा कर अपने डिब्बे की खोज में लग गए, पता चला कि अभी जंग लड़नी बाकी है हमें 9 डिब्बे पार करने थे। अपना-अपना सामान लादे लोगों से भइया थोड़ा साइड होना कहते -कहते हम किसी तरह अपनी सीट तक पहुंचे। मन ही मन खुश थे कि कम से कम ट्रेन तो नहीं छूटी और दूसरी तरफ ये प्रतिज्ञा ली कि अब स्टेशन हमेशा समय से पहुंचेंगे। हालांकि वो आज तक पूरी नहीं हो पाई। मेरे व्हाट्सऐप पर लगातार खबरों के लिंक आ रहे थे कि मुंबई में बारिश के चलते जनजीवन अस्त व्यस्त। लोगों के फोन कॉल्स भी आ रहे थे कि टीवी नहीं देखती क्या अभी क्यों जा रही हूं लेकिन हममें न जानें कहां से इतनी निडरता आ गई थीं कि किसी की बात का कोई असर नहीं था। दूसरे दिन सुबह उठे तो मौसम बहुत ही खूबसूरत था, बाहर हरियाली ही हरियाली थी, काश हमारे लखनऊ की तपती धूप भी इनमें बदल जाती। काले बादल बीच-बीच में हल्की बारिश की फुहारों से खिड़कियां भीग रहीं थीं। हमने चाय पी और बाहर के नजारों को निहारने लगे। सफर लंबा था, इसलिए हमारी आस-पास के लोगों से थोड़ी बातचीत होने लगी थी, एक पैंट्री वाले से भी हमारी पहचान हो गई थी और उसने हमें थोड़ी देर में दोबारा अदरक की अच्छी सी चाय पिलाने का वादा किया। सफर इतनी जल्दी कट गया कि पता ही नहीं चला हमें कल्याणपुर स्टेशन उतरना था और बगल की सीट वाले अंकल को भी वहीं उतरना था।
कुछ यात्राएं ऐसी होती हैं जिनमें एक कहानी की शुरुआत होती है और कुछ ऐसी जिनमें कोई किस्सा खत्म हो जाता है। मेरा ये सफर भी कुछ ऐसा ही था। महीनों पर एक यात्रा पर जिस कहानी की शुरुआत हुई थी, इस यात्रा पर वो किस्सा अपनी आखिरी सांसें ले रहा था। ये वो वक्त था जब मुझे जरूरत थी एक और यात्रा की जिसमें आखिरी सांसें लेते किस्से को कहीं छोड़ आऊं मैं। हालांकि, ये इतना आसान नहीं होता, लेकिन सफर आपको ताकत देते हैं, कुछ पल के लिए अपनी रोज की जिंदगी से निकलकर नई यादें समेट लेने की। लखनऊ से शुरू हुआ मेरा ये सफर उत्तराखंड की कई सड़कों, गलियों से गुजरते हुए कुछ बेहद ही खूबसूरत ठिकानों तक पहुंचा। मेरे ऑफिस के कलीग्स हिमांशू, भूषण, मेरी बहन अनुष्का और एक अंजान शख्स अक्षित, जो रास्ते में ही दोस्त बन गया, इन सबने मिलकर मेरे इस सफर को यादगार बना दिया। जब हम लखनऊ से कार से निकले तो सफर में शामिल सिर्फ 3 लोग ही थे जो एक-दूसरे को जानते थे, लेकिन सफर खत्म होने तक पांचों में बेहतरीन दोस्ती हो चुकी थी। हां, तो अब शुरू करते हैं सफर की बात। लखनऊ से सब दोपहर को कार से रानीखेत के लिए निकले। हमारा प्लान था। सबसे पहले रानीखेत जाना, वहां से अल्मोड़ा और फिर कौसानी। बरेली से मुझे अपनी बहन को भी लेना था। रात 11 बजे करीब हम काठगोदाम पहुंच चुके थे। अक्षत ने गाड़ी का स्टेयरिंग संभाल रखा था। तय तो ये था कि हमें रानीखेत जाना है और हम उसी रास्ते पर आगे बढ़ रहे थे। पीछे वाली सीट पर मैं, अनुष्का और हिमांशु थे। हमारी गाड़ी उत्तराखंड के खूबसूरत पहाड़ी रास्तों पर रात को दौड़े जा रही थी। ज्यादातर रास्ते पर अंधेरा और कहीं दूर किसी पहाड़ी पर दिखती एक या दो बल्ब की रोशनी। धीरे-धीरे हमें नींद आने लगी। अचानक से गाड़ी रुकी और हमें बाहर आने के लिए कहा गया। आस-पास एकदम अंधेरा था। पास में ही झरने के बहने की आवाज आ रही थी, लेकिन दिखाई नहीं दे रहा था। आसमान अनगिनत तारों से भरा था। इतने तारे शहर में रहने वालों ने शायद कभी नहीं देखे होंगे। पता चला कि गाड़ी इसीलिए रोकी गई है ताकि कुछ देर तक बैठकर तारों को निहारा जा सके और उनकी तस्वीरें ली जा सकें। हालांकि, वह जगह ठीक से नजर नहीं आ रही थी, लेकिन यकीनन बेहद ही सुंदर थी। 6 जून को भी वहां की ठंडी हवाओं से शरीर में कंपकंपी छूट रही थी। अक्षत, हिमांशु और भूषण तीनों पूरी मेहनत से कैमरे को आईएसओ और एपरचर सेट कर रहे थे ताकि तारों की बेहतरीन से बेहतरीन फोटो ली जा सके। खैर, पता नहीं उनकी ये मेहनत कितनी सफल हुई, लेकिन हम कुछ देर में आगे बढ़ गए। अक्षत और भूषण के अलावा सब सो चुके थे।
हम साल के आखिरी दिनों में वाकई उस तरह घूम रहे थे, जिस तरह हम पूरे साल घूमने की प्लानिंग करते हैं। दिल्ली से शुरू हुई ये यात्रा हल्द्वानी से होते हुए रानीखेत तक पहुंची थी और अब हमें इसे बढ़ाते हुए मुनस्यारी तक जाना था। हमारे ड्राइवर (सुंदर) ने बताया था कि रानीखेत से बिरथी के सफर में कम से कम 7 घंटे लगते हैं। पिछले अंक में मैंने बताया था न कि हमें बिरथी में रुकना था। बिरथी उत्तराखंड के पिथौरागढ़ जिले के मुनस्यारी से 30 किलोमीटर पहले बसने वाला एक छोटा सा गांव है और एक बहुत बड़े झरने के लिए जाना जाता है। म सुबह 6 बजे ही रानीखेत से निकल पड़े थे। सोचा था कि अगर 7 घंटे भी लगे तो हम 1 बजे तक तो बिरथी पहुंच जाएंगे और थोड़ी देर आराम करके आज ही कुछ जगहें देख लेंगे, लेकिन ये हमने सिर्फ सोचा था, होना कुछ और तय था। अभी हम रानीखेत से बाहर भी नहीं निकले थे कि प्रसून (पति) ने गाड़ी रुकवा ली। गाड़ी रुकते ही वो तेजी से बाहर निकले और मैं पीछे-पीछे। मोशन सिकनेस शुरू हो चुका था। हल्द्वानी से रानीखेत तक के सफर को आराम से तय करने के बाद उन्हें इस बात का भरोसा था कि आगे का सफर भी मजे से बीतेगा पर पहाड़ तो इम्तेहान लेता ही है।
पर्यटन का जुनून इसे कहते हैं। कहां आलोक सर लखनऊ में अपने घर पर बैठे थे। सुकून से, टीवी के आगे। हाथ में चाय की प्याली लिए हुए और कहां हमें लखीमपुर में रुकने को कहकर दो घंटे में खुद पहुंचने को बोला। उन्होंने अपना पहले से पैक रखा बैग उठाया। बस पकड़ी और लखीमपुर पहुंच गए। उन्हें घुमक्कड़ी का शौक है, इसलिए एक बैग हमेशा तैयार रखते हैं, जिसमें दो जोड़ी कपड़े, निक्कर-बनियानऔर पतला वाला तौलिया रहता है। इसे 'इमरजेंसी ट्रेवेल किट' भी कह सकते हैं। जो फर्स्ट एड की तरह तैयार रखना पड़ता है।
सफर, यही वो शब्द है जिसमें हम में से ज्यादातर की पूरी जिंदगी बीत जाती है। हम चाहें मंजिलों को पाने के लिए कितनी भी मेहनत कर लें, लेकिन आखिर में हमें जो याद रहता है, जिसके बारे में हम बात करते हैं और जिसकी कहानियां सुनाते हैं, वो सफर ही होते हैं। इसीलिए सफर हमेशा मुझे बेहद प्यारे लगते हैं। एक यात्रा के खत्म होते ही मैं तुरंत दूसरे सफर की तैयारी में लग जाती हूं, तो इस बार भी एक खूबसूरत से शहर की यात्रा मुकाम पर पहुंचने वाली थी। जयपुर जाने की प्लानिंग तो कई महीनों पहले ही हो गई थी, लेकिन बस वक्त तय नहीं हो रहा थाI इस दशहरे की छुट्टी में वो समय भी मिल गया जब ये प्लानिंग अपने अंजाम तक पहुंच सकती थी। हमने भी बिना देर करते हुए जयपुर की टिकट्स बुक करा लीं। लखनऊ से जयपुर जाने का सबसे अच्छा साधन बस है। तुंरत फ्लाइट बुक कराओ तो महंगी पड़ती है। ट्रेन का सफर तकरीबन 15 घंटे का है। ऐसे में बस ही बेस्ट ऑप्शन है, जो 9 घंटे में लखनऊ से जयपुर पहुंचा देती है। तो हमने भी वही किया, लखनऊ से 5 अक्टूबर की रात 10 बजे की स्लीपर बस से हम जयपुर के सफर पर निकल पड़े। बस में लेटकर गाने सुनते हुए, हम सुबह 7 बजे जयपुर पहुंच चुके थे।