यहाँ के कण-कण में राम हैं…
घाट पर स्नान
नहाकर हम घाट की सीढ़ियों में बैठे पंडा के पास तिलक लगवाने चल दिए, हर किसी की अपनी फरमाइश थी कि कौन कैसे तिलक लगावाएगा, कोई राम नाम लिखवाना चाह रहा था तो कोई त्रिपुंड लगवाना चाहा रहा था। फिर क्या हमने तिलक भी लगवा लिया और सीढ़ियों पर बैठे बातें करते रहे घण्टों। हम रामायण जैसे भक्ति धारावाहिकों में राम के दर्शन करते आए, उसमें भी कई बार सरयू नदी को दिखाया गया था, हम उस पल के बारे में सोच रहे थे, जैसे कि आज फिर वही सब कुछ हो रहा हो।
घाट से निकलकर हम एक बार फिर निकल पड़े मंदिरों की ओर... सुबह के नौ बज गए थे, दुकाने लगने लगी थीं, भगवा रंग के झंडों की दुकानें, फूल और प्रसाद की दुकानें, पीतल की गदा और त्रिशूल की दुकानें, मंदिर जाते समय लिस्ट बनाने लगे कि दर्शन करके लौटने के बाद कौन प्रभु की नगरी से क्या ले जाएगा।
अयोध्या के राजा के महल के गेट पर गाड़ी पार्क करके पैदल ही मंदिर के लिए चल दिए, समय कम था और हमें पूरा अयोध्या भी घूमना था और समय से लौटकर लखनऊ भी पहुंचना था क्योंकि अचानक प्लान में छुट्टियां शामिल नहीं होतीं और रोजी-रोटी के लिए नौकरी भी जरूरी थी।
हमने हनुमानगढ़ी से शुरुआत करने की सोची और थोड़ी ही देर में हम पहुंच गए हनुमानगढ़ी द्वार पर । सच में हनुमानगढ़ी जैसा नाम वैसा ही भव्य रूप, आखिर हो भी क्यों न हनुमान जी का मंदिर है भव्य तो होगा ही जैसे विशाल और विराट वो हैं।
गजब की भीड़ थी और उसे देखकर थोड़ी घबराहट भी हुई, लेकिन एक बार जहां भीड़ में शामिल हुए, जयकारे लगने शुरू हो गए और फिर कहते हैं कि ईश्वर के दर्शन करने में कष्ट होना भी जरूरी है। हर कोई जयकारा लगा रहा था, फिर क्या ऐसे करते-करते पहुंच गए हम हनुमान जी के दर्शन को, इतनी भीड़ होने के बाद भी हमें दर्शन मिल ही गया।
अब बारी थी फोटो खिंचवाने की क्योंकि ये तो जरूरी कामों में एक था। हर कोई यादें समेट ले जाना चाहता था क्योंकि एक वही हैं जो बाद में भी साथ रहती हैं।
मंदिर प्रांगण में टहल ही रहे थे कि सामने एक संकरी सी सीढ़ी दिखी, ऊपर क्या है देखने के लिए चढ़ गए। ऊपर तेज धूप थी, फर्श जल रही थी, पैर भी झुलस रहे थे, लेकिन जब ऊपर पहुंचे तो सारी गर्मी दूर हो गई, जब वहां से पूरी अयोध्या नगरी के दर्शन हुए।
दूर-दूर के मंदिर और वहां से बजती घंटियों की आवाजें कानों को सुकून दे रही थीं, सच में यूं ही इसे प्रभु की नगरी नहीं कहा जाता। मंदिर से निकलकर जब बाहर आए तो फिर कनक और राजा दशरथ महल के लिए निकल लिए।
कनक भवन के बारे में कहा जाता है कि माता कैकेयी ने प्रभु श्री राम और देवी सीता को यह भवन उपहार में दिया था। जैसे कि यह भवन अपनी कलाकृतियों के लिए जाना जाता है, सच में वैसा ही है। सदियां बीत जाने के बाद भी आज भी ये महल वैसा ही, भवन के गर्भ गृह में प्रभु राम और माता की मूर्तियां स्थापित हैं, ऐसी मूर्तियां जैसे कि बोल उठेंगी।
कनक भवन से निकलकर हम दशरथ भवन के लिए चल दिए दशरथ भवन, अयोध्या के बीचों-बीच में बना हुआ है। मान्यता है कि इस भवन को ठीक उसी जगह बनाया गया है जहां राजा दशरथ रहा करते थे। भगवान राम और उनके तीनों भाईयों लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न का बचपन यहीं बीता था। दशरथ भवन का द्वार खूबसूरत रंगों से रंगा हुआ है, गेट पर दूर देश से आए श्रद्धालुओं की भीड़ इकट्ठा थी, मानों हर कोई प्रभु राम के बचपन की यादों को अपने साथ ले जाना चाहता हो।
यहां से निकलते-निकलते दोपहर हो गई, तब तक प्रभु राम मंदिर के पट बंद हो गए थे, लोगों ने बताया कि अभी दर्शन नहीं होंगे, पहले तो लगा इतनी दूर आए लेकिन दर्शन न हुए लेकिन फिर लगा कि अच्छा ही है। क्या पता भगवान भी यही चाहते हैं, इसी बहाने एक बार फिर अयोध्या आना होगा, तब तक भगवान का मंदिर भी तैयार हो जाएगा।
हम अयोध्या से निकल रहे थे, लेकिन साथ बहुत कुछ ले जा रहे थे। यादों का एक पिटारा जिसे हम जब चाहे खोल सकें और एक बार फिर अयोध्या पहुंच जाएं।
हाईवे पर गाड़ी दौड़ रही थी, लेकिन कानों में अभी घंटियों की आवाज और साथ ही अब भी धूप अगरबत्ती की खुशबू आ रही थी, जैसे कि अयोध्या भी साथ-साथ चल रहा हो।
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