मेरी यात्राएं हमेशा मुझे मेरे और करीब लाती हैं

लोनावला: खूबसूरत झीलों वाला शहर
दूसरे दिन सुबह 7 बजे लोनावला की बस थी इसलिए तीन दिन की पैकिंग करके हम छह बजे ठाणे बस स्टेशन पहुंच गए। हालांकि वहां की बसों की हालत देखकर मुझे मुंबई वासियों पर थोड़ा तरस आया, मुंह से यही निकला इससे अच्छी तो हमारी यूपी की बसें हैं। कुछ ही चीजों पर तो हम यूपी वाले थोड़ा घमंड कर पाते हैं। एक-डेढ़ घंटे का सफर था तो हम अपनी-अपनी सीट पर बैठ गए। थोड़ी देर के बाद बारिश तेज हो गई और हरे भरे रास्तों में जैसे चार-चाँद लग गए हों। रास्ता बेहद खूबसूरत था, सड़कें भीगकर और भी ज्यादा चमकने लगीं थीं। ऐसा लग रहा था जैसे किसी ने आसमान से हरे रंग का डिब्बा इस शहर पर उड़ेल दिया हो, दूर पहाड़ों से गिरने वाले दूधिया झरनों को देखकर लग रहा था वाकई प्रकृति से ज्यादा खूबसूरत कुछ भी नहीं हो सकता। मन कर रहा था बस ये खूबसूरत मौसम और रास्ते कभी खत्म न हों,ऐसे ही साथ-साथ चलते रहें। लगभग डेढ़ घंटे बाद हम लोनावला पहुंच गए। बारिश तेज हो गई थी, वहां से हमारा रिजॉर्ट थोड़ी ही दूर था लेकिन पैदल चलने के लिए हमें छतरियों की जरूरत थी, हम भीग जाते तो कोई गम न था लेकिन सामान भीग जाता तो तकलीफ होती। पास की एक दुकान से हमने छाते खरीदे और पैदल-पैदल ही रिजॉर्ट तक पहुंच गए।

हमने समय बर्बाद न करते हुए तुरंत तैयार होकर लोनावला सैर पर निकलने का प्लान किया और एक गाड़ी बुक कर ली, जो हमें वहां के सारे प्वांइट घुमाने वाला था। दोपहर के दो बजे गाड़ी आ गई और हम निकल पड़े लॉयन प्वांइट की सैर के लिए। बारिश झमाझम हो रही थी, अगल-बगल से गाड़ियां पानी में छपाके मारकर आगे बढ़ रही थीं। दोपहर के दो बजे ऐसा मौसम था जैसे शाम के छह बजे हों। थोड़ी देर में ही लॉयन प्वांइट आ गया, बारिश थोड़ी थमी थी लेकिन हवा इतनी तेज थी कि आस-पास भुट्टों की दुकानों पर चिंगारियां चटचटा कर उड़ रहीं थीं। हर तरफ धुंध ही धुंध थी, ऐसा लगता था मानो बादलों ने यहां अपना डेरा जमा लिया हो। बादल मेरे इतने करीब थे कि मैं उन्हें अपने हाथों से छू सकती थी। जी चाह रहा था इन्हीं वादियों के साथ उड़ जाऊं, सांसारिक मोह और जिम्मेदारियों से पीछा छुड़ा कर हमेशा के लिए इनमें ही विलुप्त हो जाऊं । इन दिनों मेरा दिल सब कुछ महसूस करने के लिए खुले आसमान के परिंदे की तरह आजाद था। दिल और दिमाग अलग सोच कर भी हमेशा साथ रहते हैं। किसी एक की सुन कर जिंदगी को न जिया सकता है और न समझा। पर कई बार खुद को समझने के लिए दिल और दिमाग के बीच की दूरी बढ़ानी पड़ती है और मुझे लगता है कि यात्राओं के दौरान इस दूरी को ज्यादा बढ़ा देना चाहिए। सारी उलझनों को इंतजार करने के लिए कहकर दिमाग को सोचने समझने की जिम्मेदारी से कुछ दिनों के लिए मुक्त कर देना चाहिए।
हमने दो चार तस्वीरें लीं, पास की दुकान से भुट्टे लिए और वहां से खाते हुए आगे निकल पड़े। ड्राइवर ने बताया आगे एक डैम है लेकिन बारिश की वजह से वहां बहुत सावधानी के साथ जाना होगा। हम तैयार थे पार्किंग से लगभग 2 किमी पैदल चलकर डैम किनारे पहुंच गए। पानी तेज रफ्तार से चट्टानों को फांदते हुए बहता जा रहा था, जैसे उसे किसी की भी परवाह नहीं है, जो रास्ते में मिलता उसे भी अपने साथ लेकर आगे चल पड़ता। किनारों पर पानी कम था तो काफी लोग नहा भी रहे थे लेकिन चट्टानों पर फिसलन को देखते हुए हमने ज्यादा आगे जाने का इरादा छोड़ दिया क्योंकि हम मरने के बजाय अभी माथेरन घूमना चाहते थे। पानी बर्फ सा ठंडा था, थोड़ी देर एक चट्टान के पास बैठकर हमने नजारो का निहारा और फिर लौटने लगे। अब बारिश तेज हो गई हमने काफी कोशिश कि अभी न भीगें लेकिन तेज हवा में छतरी भी बार-बार पलटी जा रही थी और हम आधे से ज्यादा भीग चुके थे। लेकिन इन सबका एक अलग ही मजा था। दोबारा कहां लौटकर आने वाले थे ये दिन।
हमें अभी लोनावला लेक और खंडाला जाना था। लोनावला लेक में दूर-दूर तक पानी ही पानी था, हरियाली इतनी ज्यादा थी कि लग रहा था आस-पास जैसे किसी ने हरे रंग के मखमल से पहाड़ों को ढक दिया हो और ऊपर फैले नीले आकाश में छोटे बादलों के टुकड़े उमड़-घुमड़ रहे थे। तेज हवा से हमारी छतरियां पलट गईं तो हमने सोचा ये सही वक्त है बारिश में सराबोर होने का। न कोई रोकने वाला था न डांटने वाला, लेक किनारे खड़े होकर हम बस भीग रहे थे। शाम हो रही थी इसलिए हम जल्दी ही खंडाला प्वांइट भी देखना चाहते थे। ड्राइवर ने किनारे गाड़ी लगाई और इशारे में बताया कि उधर से रास्ता है। हम उस वीरान रास्ते पर चल पड़े। दूर-दूर तक कोई नहीं दिखा, जगह थोड़ी अजीब सी थी, आगे लगा कोई लेक है लेकिन जब हम वहां तक पहुंचे तो सिर्फ धुंध ही धुंध थी, कुछ दिख ही नहीं रहा था कि नीचे आखिर है क्या। हम हंसते हुए तेजी से वहां से लौटे और ड्राइवर को फटकारा कि ये कैसा अजीबो गरीबो प्वांइट था। दोबारा ऐसी जगहों को दिखाकर हम लड़कियों का कीमती वक्त न जाया करे। हम रिजॉर्ट लौट रहे थे, रास्ते में एक खूबसूरत सा मंदिर था श्री नारायण धाम। हम थोड़ी देर के लिए उतरे, सोचा यहां तक आए हैं तो दर्शन करके चलें। वैसे भी सकुशल घर लौटने की प्रार्थना भी करनी थी। मंदिर वाकई बहुत भव्य और सुंदर था, परिसर में साफ-सफाई भी थी, आरती हो रही थी और लोग पूजा-पाठ में लगे थे। हम पूरी तरह से भीगे थे इसलिए दर्शन करके तुरंत रिजॉर्ट लौटना चाह रहे थे।
जब हरी-भरी घाटियों वाले शहर माथेरन पहुंचे
दूसरे दिन हमारी माथेरन की ट्रेन थी लेकिन भयंकर बारिश के चलते वो कैंसिल हो गई थी। हमने रिसेप्शन पर कैब का पता किया तो सामने खड़े अंकल ने कहा माथेरन जाने का इरादा छोड़ दीजिए, वहां के रास्ते बंद हो चुके हैं, हम लोगों को भी वहीं जाना था। हमारे घरों से भी फोन आ रहे थे कि अब ज्यादा आगे न जाएं, टीवी पर दिखा रहे हैं कि बाढ़ आ गई है, मम्मी तो हमारी इस यात्रा पर पहले से ही थोड़ी नाराज थीं, उनका कहना था कि हमने गलत समय चुना है। थोड़ी देर के लिए हम घबरा गए कि अब क्या करेंगे लेकिन फिर वही छिपी हुई हिम्मत आगे आकर खड़ी हो गई और हमने दूसरे दिन सुबह आठ बजे की कैब बुक कर ली। ड्राइवर ने शर्त रखी कि अगर रास्ते में कहीं बहुत ज्यादा पानी भरा हुआ दिखा तो वो आगे नहीं जाएगा। हमने हां में हां मिला दी और दूसरे दिन हम निकल पड़े माथेरन के लिए। हरा रंग जैसे इस शहर का फेवरेट हो, हर तरफ वही दिख रहा था। ऐसा लग रहा था पेड़, पहाड़ और रास्ते सब हमारे साथ माथेरन जा रहे हैं, हमें वहां तक सकुशल छोड़ने। इन पहाड़ों में कुछ तो खास होता है, शायद इन्हें जादू करना आता है तभी तो हर किसी को अपना मुरीद कर लेते हैं एक झटके में। इनकी खूबसूरती देखकर समझ में आता है, कि लोग क्यों अपना घर बार छोड़कर लंबी यात्राओं पर निकल जाते हैं। लगभग 3 घंटे बाद हम नेरल में थे वहां से अभी 7 किमी अंदर माथेरन था, जहां तक जाने के लिए तीन ऑप्शन थे, ट्राय टेन, घुड़सवारी और पैदल यात्रा। ट्रेन जा चुकी थी और दूसरी आने में अभी चार घंटे थे, घुड़सवारी कराने वालों ने हमें घेर लिया था और एक के 700 रुपए मांग रहे थे। हमने आपस में बातचीत की और तीसरे ऑप्शन यानी पैदल चलने को चुना। हमारे बैग भारी थे और रास्तों से भी अनजान थे इसलिए एक कुली को साथ ले लिया। ट्रेन की पटरियों के किनारे हम आराम से चल रहे थे, यहां की सड़कें पक्की नहीं थीं बस लाल मिट्टी से बनी थीं लेकिन यहां पाल्यूशन जीरो था।

हरी-भरी घाटियों, पहाड़ों के बीच बना ये हिल स्टेशन मुंबई के शोर-शराबे से बहुत अलग था। मैंने कुली से यहां की मार्केट के बारे में पूछा तो उसने कहा बेकार है सारा सामान मुंबई से ही आता है, इसलिए कुछ अलग नहीं है हां महंगी जरूर है। चलते-चलते अब थकान हो रही थी, शरीर जवाब दे रहा था कि थोड़ी देर बाद हम माथेरन पहुंच गए। यहां हमें एक सरकारी गेस्ट हाउस में रुकना था, कुली ने बताया कि यहां कई हॉरर फिल्मों की शूटिंग हुई है। वाकई वो जगह देखकर ऐसा ही लग रहा था एक दम वीरान से किनारे पर एक बोर्ड लगा था बाम्बे हॉलीडे हाउस का और बगल में एक बड़ा सा कटा हुआ पेड़ खड़ा था। गेस्ट हाउस के कमरे बहुत बड़े और 1920 फिल्म में दिखाए कमरों जैसे थे। हम काफी थके थे इसलिए खाना खाकर आराम करना चाहते थे। आराम करते-करते कब सो गए पता ही नहीं चला उठे तो अंधेरा हो चुका था, हमने सोचा बाहर जाकर चाय पीते हैं, पैदल-पैदल हम मार्केट की
ओर बढ़े लाइट भी जा चुकी थी, कभी कभार रास्तों पर एक, दो इंसान दिख जाते थे वरना हर तरफ सन्नाटा ही था। वापस लौटे तो पूरे गेस्ट हाउस में भी अंधेरा ही अंधेरा था,हम सोच रहे थे कि ये कौन सी जगह रहने के लिए चुन ली है, मेरी दो साथी मुसाफिर काफी डरी हुई थीं और मैं बीच-बीच में ये कैसी आवाज थी, किसने दरवाजा खटखटाया जैसे वहम डालकर उन्हें और डरा दिया था। दिति ने सोने से पहले मोबाइल में हनुमान चालीसा बजाई और मुझसे चुप रहने की गुजारिश की। अंजलि ने सबसे बाल बांधकर सोने को कहा क्योंकि खुले बालों से चुड़ैलें ज्यादा आकर्षित होती हैं,मुझे नई-नई जानकारियां मिल रहीं थीं। रात भर बारिश हुई, ऐसा लग रहा था कि सुबह होते-होते कहीं माथेरन डूब न जाए और हमारा गेस्ट हाउस भी बह जाए उसके साथ ही हम तीनों भी।
सुबह हुई तो बारिश रुकी थी और हम तुरंत नाश्ता करके जंगल के रास्ते निकल पड़े। गेस्ट हाउस के एक आदमी ने बताया था पास में ही एक मोरबे डैम है। जंगल के सारे पेड़-पौधे बारिश में सराबोर थे लेकिन सुकून पहुंचा रहे थे, खामोशी सहला रही थी, हमारे अलावा रास्ते में और कोई भी नहीं था। एक पल को सोचिए तो तीन लड़कियां घने जंगल में अकेले लेकिन ऐसी मनहूस बातें सोची ही क्यों जाए। हर तरफ बेहद सुकून था ऐसा लग रहा था मानो किसी दूसरे ग्रह पर आ गए हों। थोड़ी देर बाद हम मोरबे डैम के पास थे, बड़े-बड़े चट्टानों से ऊंचाई से गिरता पानी टाइड की सफेदी से भी ज्यादा सफेद था। हमने सोचा पता नहीं ये पल अब लौटकर वापस आये ना आए, तो कोई कसर छोड़नी नहीं चाहिए जिसे बाद में सोचकर पछताना पड़े। मोबाइल फोन और कैमरा बैग एक किनारे रखकर हम कूद पड़े पानी में। डैम के बगल में सीढ़ियां थीं, पानी से निकलकर वहां गए। वहां पहुंचकर देखा तो धुंध इस कदर छाई थी कि थोड़ी ही दूर की चीजें नहीं दिख रही थीं, तेज हवाओं से धुंआ इधर-उधर फैल रहा था। कौन कहेगा ये जुलाई का महीना है ये तो दिसंबर सा लग रहा था। नीले आसमान में छाये हल्के-हल्के बादल इस खूबसूरती को और बढ़ा रहे थे। ये बेहद खूबसूरत नजारा था और मैं इसे थोड़ी देर महसूस कर लेना चाहती थी इसलिए वहीं एक बेंच पर चुपचाप बैठ गई। एकAबैठे-बैठे सोच रही थी एक अपनापन से लग रहा था इस शहर में, जैसे पहले कभी यहीं रहती थी। यहीं एक छोटा सा घर था और हर शाम चाय पीने मैं यहीं आकर बैठ जाया करती थी।

हमें चार बजे की ट्राय ट्रेन पकड़नी थी मुंबई वापस जाना था लेकिन बारिश दोबारा शुरू हो गई थी। जैसे ये शहर भी मुझसे जुदा नहीं होना चाहता था, जैसे मैं उससे नहीं होना चाहती थी। पर जिंदगी एक शहर में कहां कटती है। जिंदगी भर हमारे साथ शहरों का कारवां चलता रहता है। हमने फटाफट अपने बैठ उठाए और ट्रेन में बैठ गए। ट्रेन घुमावदार रास्तों पर धीरे-धीरे चल रही थी, हम खिड़की के किनारे बैठे थे क्योंकि कोई भी खूबसूरत नजारा मिस नहीं करना चाहते थे। थोड़ी दूर में हम अमन लॉज स्टेशन आ गए यहां से टैक्सी करके हमें नेरल जाना था और वहां से मुंबई के लिए लोकल पकड़नी थी। शाम छह बजे हम लोनावला और माथेरन की खूबसूरत यादों के साथ मुंबई वापस आ गए थे। वाकई ये यात्रा मेरे अब तक के जीवन की सबसे खूबसूरत यात्रा थी। दूसरे दिन हमें मुंबई घूमना था हालांकि मुझे कोई खासी दिलचस्पी नहीं थी लेकिन फिर भी एक दिन बर्बाद करने से ये बेहतर था। सुबह उठकर हम सिद्धिविनायक दर्शन के लिए गए, तमाम सिक्योरिटी चेक के बाद मंदिर तक पहुंचे, लेकिन दर्शन करने के लिए मुश्किल से 20 सेंकेड मिले होंगे। मान्यता है कि यहां जो भी मांगना होता है वो मूषक के कानों में चुपके से कह दिया जाता है और वो मुराद पूरी हो जाती है। वैसे तो लंबी लिस्ट थी मांगने के लिए लेकिन उसमें से एक, दो बहुत खास मन्नतों की सिफारिश मैंने मूषक से कर दी। मंदिर से लौटकर हमने थोड़ी शॉपिंग की और फिर पापड़ी चाट और वड़ा पाव खाने के लिए एक दुकान पर रुक गए, क्योंकि मुबंई गए और वड़ा पाव नहीं खाया ये कैसे हो सकता था। मुंबई में बस एक यही चीज मुझे पसंद आई। यहां खाने की वैरायिटी बहुत हैं अगर आप फूडी हैं तो ये जगह आपको निराश नहीं करेगी। लौटते वक्त हम जिस कैब में बैठे उसका ड्राइवर कमाल का था। अंजलि ने उससे पूछा यहां सलमान खान का घर कहां है और इसके बाद ऐसा लगा जैसे किसी ने उसके जख्मों को कुरेद दिया हो। उसने कहा मैडम हीरो हीरोइन क्या होते हैं, जो इनके फैंस होते हैं वो पागल हैं, आम आदमी ही हीरो है, ये लोग तो हमारी वजह से हैं, हमने इन्हें यहां तक पहुंचाया है, वरना ये थे क्या। उसकी बातों में दम तो था, मैंने उसकी हां में हां मिलाई और बातें करते-करते घर आ गए।
दूसरे दिन सुबह आठ बजे की फ्लाइट थी, हम अभी कुछ दिन वापस नहीं जाना चाहते थे, मैं तो वापस माथेरन के जंगलों में भटकना चाहती थी, लोनावला की बारिश में फिर से भीगना चाहती थी, लेकिन मजबूरी थी वापस तो जाना था। तमाम खूबसूरत सी यादों को समेटकर और जल्द ही फिर किसी ऐसी ही ट्रिप पर जाने के वादे के साथ हम वापस अपने शहर लखनऊ लौट आए।
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