जहां धड़कता है श्री कृष्ण का दिल

अनुषा मिश्रा 13-06-2022 07:14 PM Culture
कहते हैं कि जब भगवान श्री कृष्ण ने अपनी देह का त्याग किया और उनका अंतिम संस्कार किया गया तो एक हिस्से को छोड़कर उनका पूरा शरीर पंचतत्व में विलीन हो गया। उनका हृदय जो उनके इस दुनिया से विदा लेने के बाद भी धड़कता रहा। कहते हैं कि वह दिल आज भी सुरक्षित है और भगवान जगन्नाथ की लकड़ी की मूर्ति के अंदर है। ओडिशा के पुरी शहर में बना भगवान जगन्नाथ का मंदिर अपने अंदर हज़ारों रहस्य समेटे है। इस बार हम आपको बताएंगे इसी मंदिर का इतिहास। 

कब बना था मंदिर

गंग वंश में मिले ताम्र पत्रों के मुताबिक इस समय पुरी में जो मंदिर है उसे कलिंग राजा अनंतवर्मन चोडगंग देव ने बनवाना शुरु किया था। मंदिर के जगमोहन और विमान भाग इनके शासन काल 1078-1148 के दौरान बने थे। इसके बाद ओडिशा राज्य के शासक अनंग भीम ने सन 1197 में इस मंदिर को वर्तमान रूप दिया था। मंदिर बनने के बाद इसमें 1558 तक पूजा होती रही और अचानक इसी वर्ष अफगान जनरल काला पहाड़ ने ओडिशा पर हमला कर दिया। हमले के बाद पूजा बंद करा दी गई। मंदिर के विग्रहों को चिल्का झील में स्थित एक द्वीप में छुपा कर रख दिया गया। इसके बाद रामचंद्र देब ने खुर्दा में स्वतंत्र राज्य स्थापित किया और उनके स्वतंत्र राज्य स्थापित करने के बाद मंदिर और इसकी मूर्तियों को दोबारा स्थापित किया गया। जगन्नाथ पुरी का मंदिर 400,000 वर्ग फुट में फैला है और चहारदिवारी से घिरा हुआ है।

पौराणिक मान्यता

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार पूरी में भगवान जगन्नाथ का मंदिर राजा इन्द्रद्युम्न ने बनवाया था। राजा इन्द्रद्युम्न मालवा के राजा थे जिनके पिता का नाम भारत और माता का नाम सुमति था। कहते हैं कि राजा इन्द्रद्युम्न यहां कई विशाल यज्ञ किए और एक सरोवर बनवाया। एक रात भगवान विष्णु ने उनको सपने में दर्शन दिए और कहा कि नीलांचल पर्वत की एक गुफा में मेरी एक मूर्ति है, उसे नीलमाधव कहते हैं। ‍तुम एक मंदिर बनवाकर उसमें मेरी यह मूर्ति स्थापित कर दो। राजा ने अपने सेवकों को नीलांचल पर्वत की खोज में भेजा। उसमें से एक था ब्राह्मण विद्यापति।

विद्यापति ने सुन रखा था कि सबर कबीले के लोग नीलमाधव की पूजा करते हैं और उन्होंने अपने देवता की इस मूर्ति को नीलांचल पर्वत की गुफा में छुपा रखा है। वह यह भी जानता था कि सबर कबीले का मुखिया विश्‍ववसु नीलमाधव का उपासक है और उसी ने मूर्ति को गुफा में छुपा रखा है। चतुर विद्यापति ने मुखिया की बेटी से विवाह कर लिया। आखिर में वह अपनी पत्नी के जरिए नीलमाधव की गुफा तक पहुंचने में सफल हो गया। उसने मूर्ति चुरा ली और राजा को लाकर दे दी।

विश्‍ववसु अपने आराध्य देव की मूर्ति चोरी होने से बहुत दुखी हुआ। अपने भक्त के दुख से भगवान भी दुखी हो गए। भगवान गुफा में लौट गए, लेकिन साथ ही राजा इन्द्रद्युम्न से वादा किया कि वह एक दिन उनके पास जरूर लौटेंगे बशर्ते कि एक दिन वह उनके लिए विशाल मंदिर बनवा दे। राजा ने मंदिर बनवा दिया और भगवान विष्णु से मंदिर में विराजमान होने के लिए कहा। भगवान ने कहा कि तुम मेरी मूर्ति बनाने के लिए समुद्र में तैर रहा पेड़ का बड़ा टुकड़ा उठाकर लाओ, जो द्वारिका से समुद्र में तैरकर पुरी आ रहा है। राजा के सेवकों ने उस पेड़ के टुकड़े को तो ढूंढ लिया, लेकिन सब लोग मिलकर भी उस पेड़ को नहीं उठा पाए। तब राजा को समझ आ गया कि नीलमाधव के अनन्य भक्त सबर कबीले के मुखिया विश्‍ववसु की ही सहायता लेना पड़ेगी। सब उस वक्त हैरान रह गए, जब विश्ववसु भारी-भरकम लकड़ी को उठाकर मंदिर तक ले आए।

अब बारी थी लकड़ी से भगवान की मूर्ति गढ़ने की। राजा के कारीगरों ने लाख कोशिश कर ली, लेकिन कोई भी लकड़ी में एक छैनी तक भी नहीं लगा सका। तब तीनों लोक के कुशल कारीगर भगवान विश्‍वकर्मा एक बूढ़े व्यक्ति का रूप धरकर आए। उन्होंने राजा से कहा कि वे नीलमाधव की मूर्ति बना सकते हैं, लेकिन साथ ही उन्होंने अपनी शर्त भी रखी कि वे 21 दिन में मूर्ति बनाएंगे और अकेले में बनाएंगे। कोई उनको बनाते हुए नहीं देख सकता। उनकी शर्त मान ली गई। लोगों को आरी, छैनी, हथौड़ी की आवाजें आती रहीं। राजा इन्द्रद्युम्न की रानी गुंडिचा अपने को रोक नहीं पायीं। वह दरवाजे के पास गईं तो उन्हें कोई आवाज सुनाई नहीं दी। उन्हें लगा कि बूढ़ा कारीगर मर गया है। उन्होंने राजा को इसकी सूचना दी। अंदर से कोई आवाज सुनाई नहीं दे रही थी तो राजा को भी ऐसा ही लगा। सभी शर्तों और चेतावनियों को दरकिनार करते हुए राजा ने कमरे का दरवाजा खोलने का आदेश दिया।

जैसे ही कमरा खोला गया तो बूढ़ा व्यक्ति गायब था और उसमें 3 अधूरी ‍मूर्तियां पड़ी मिलीं। भगवान नीलमाधव और उनके भाई के छोटे-छोटे हाथ बने थे, लेकिन उनकी टांगें नहीं, जबकि सुभद्रा के हाथ-पांव बनाए ही नहीं बने थे। राजा ने इसे भगवान की इच्छा मानकर इन्हीं अधूरी मूर्तियों को स्थापित कर दिया। तब से लेकर आज तक तीनों भाई बहन जगन्नाथ पुरी में इसी रूप में विद्यमान हैं।

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