मोहनजो-दारो से जुड़े हैं बस्तर की इस कला के तार

अनुषा मिश्रा 04-08-2023 03:54 PM My India

भारत के दिल में बसे सांस्कृतिक रूप से समृद्ध क्षेत्र बस्तर में, एक सदियों पुरानी परंपरा निहित है जो कला प्रेमियों और इतिहासकारों को समान रूप से आकर्षित करती रहती है। उस कला का नाम है ‘ढोकरा’। ढोकरा कला, धातु ढलाई का एक अनूठा रूप है, जो पीढ़ियों से इस आदिवासी क्षेत्र में प्रचलित है। यह कला प्राचीन तकनीकों के इस्तेमाल व कुशल कारीगरों की मेहनत का बेहतरीन नमूना है। 

मूल

ढोकरा कला के बारे में जानने के लिए हमें हजारों साल पीछे सिंधु घाटी सभ्यता के युग की यात्रा करनी होगी। इस कमाल के शिल्प की जड़ें उसी कलात्मक परंपरा में खोजी जा सकती हैं जो एक समय प्राचीन शहर मोहनजो-दारो में फली-फूली थी। वहां से, यह भारतीय उपमहाद्वीप के विभिन्न हिस्सों में फैल गयी और फिर बस्तर के सांस्कृतिक रूप से मज़बूत एरिया में बस गयी।

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ढोकरा तकनीक की मुश्किलें

 ढोकरा कला एक अनूठी धातु ढलाई तकनीक पर निर्भर होती है जो इसे बाकी कलाओं से अलग करती है। खोई-मोम कास्टिंग विधि का उपयोग करके, कुशल कारीगर मंत्रमुग्ध कर देने वाली मूर्तियां और जटिल आभूषण बनाते हैं। यह प्रक्रिया मोम में अपनी पसंद का आकार गढ़ने, उसे मिट्टी के सांचे में बंद करने और फिर मोम को पिघलाने से शुरू होती है। पिघली हुई धातु, आमतौर पर पीतल और कांसे का मिश्रण, जटिल डिजाइन का आकार लेते हुए, सांचे में डाला जाता है। फिर आखिरी प्रोडक्ट को बड़ी मेहनत से तैयार किया जाता है, जो शिल्पकार के कौशल और सटीकता को दिखाता है। 

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जनजातीय संस्कृति का संरक्षण

ढोकरा कला न केवल एक विज़ुअल ट्रीट के रूप में काम करती है बल्कि आदिवासी संस्कृति और पौराणिक कथाओं के संरक्षक के रूप में भी जानी जाती है। बस्तर के कारीगर अपनी समृद्ध लोककथाओं से प्रेरणा लेते हैं, अपनी रचनाओं में प्रतीकवाद और कहानियों का समावेश करते हैं। देवी-देवताओं, आदिवासी नर्तकियों और जानवरों को चित्रित करने वाली मूर्तियों को ध्यान देकर तैयार किया गया है। इसका हर टुकड़ा एक कहानी कहता है, जो आने वाली पीढ़ियों के लिए स्थानीय समुदायों की विरासत और मान्यताओं को संरक्षित करता है। जो चीज़ ढोकरा कला को वास्तव में खास बनाती है, वह है इसका देहाती और जैविक आकर्षण। धातु की खुरदरी बनावट, मिट्टी जैसा रंग और जटिल रूपांकन आपको बीते युग में ले जाते हैं। कारीगरों का प्रकृति के साथ गहरा संबंध उनके काम में दिखता है, क्योंकि वे अक्सर पक्षियों, जानवरों और पत्ते जैसे तत्वों को शामिल करते हैं, जो क्षेत्र की जैव विविधता को दिखाते हैं।

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बस्तर में एक विरासत

समय बीतने के बावजूद, बस्तर में ढोकरा कला की विरासत मजबूत बनी हुई है। कौशल और ज्ञान पारंपरिक रूप से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक हस्तांतरित किया जाता है, जिससे इस प्राचीन शिल्प का संरक्षण सुनिश्चित होता है। आज, ढोकरा कला दुनिया भर की कला दीर्घाओं और प्रदर्शनियों में अपना स्थान पाती है, जो अपनी शाश्वत सुंदरता और सांस्कृतिक महत्व से दर्शकों को मंत्रमुग्ध कर देती है।


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