वनवास के समय इन जगहों में रहे थे श्री राम

अनुषा मिश्रा 12-07-2022 02:15 PM Around The World
भगवान श्री राम ने सीता जी और लक्ष्मण जी सहित अपने जीवन के 14 साल वनवास में गुजार दिए। अयोध्या से जब तीनों निकले तो उन्हें नहीं पता कि कहां जाना है, कहां रहना है और क्या करना है। उनके मन में उस वक्त यह विचार था कि उन्हें अपने पिता के वचन को किसी भी हाल में पूरा करना है और जीवन के आने वाले 14 साल वन में बिताने के बाद ही वापस अयोध्या लौट कर आना है।
 भले ही घर से निकलते वक्त उन्हें नहीं पता था कि उन्हें कहां जाना है, लेकिन अपने इन 14 वर्षों के काल खंड में वे जहां भी गए, जहां भी रुके, सभी जगहें पवित्र और अविस्मरणीय बन गईं। कहते हैं कि अपने वनवास के दौरान श्री राम लगभग 200 जगहों पर गए और रुके। हम आपको बताएंगे उन कुछ प्रमुख जगहों के बारे में जहां वनवास के दौरान प्रभु श्री राम, माता सीता और लक्ष्मण जी गए थे…


श्रृंगवेरपुर 
वाल्मीकि रामायण के अनुसार, अपने वनवास के लिए अयोध्या से निकलने के बाद राम जी सबसे पहले अयोध्या से 20 किलोमीटर दूर तमसा नदी के तट पर पहुंचे थे। इसके बाद नदी पार करके वे प्रयागराज से 20-22 किलोमीटर दूर निषादराज गुह के राज्य श्रृंगवेरपुर पहुंचे। यहीं गंगा के तट पर उन्होंने केवट से गंगा पार करने को कहा था। रामायण काल में सिंगरौर को ही श्रृंगवेरपुर कहा जाता था। प्रयागराज से उत्तर-पश्चिम की ओर लगभग 35 किलोमीटर दूर यह जगह है। कहते हैं कि जब श्री राम, सीता जी और लक्ष्मण जी यहां घाट पर पहुंचे थे तब वहां नाव वालों ने उन्हें नदी पार कराने से मना कर दिया था। इसके बाद स्वयं निषादराज गुह वहां आए और उन्होंने श्रीराम से कहा कि अगर वे उन्हें अपने पैर धोने का अवसर देंगे तो वह उन्हें नदी पार करा देंगे। श्रीराम ने उनका निवेदन मान लिया और निषादराज से वनवास की वापसी में उनके घर आने का वादा करके वह तीनों यहां से आगे चले गए। इस घटना से जोड़ने के लिए इस स्थान का नाम 'रामचुरा' रखा गया है। इस जगह पर एक छोटा सा मंदिर भी है। हालांकि इस मंदिर का कोई ऐतिहासिक या सांस्कृतिक महत्व नहीं है, लेकिन यह जगह अब पर्यटकों को भा रही है।
कुरई 
श्रृंगवेरपुर की नदी के दूसरी छोर पर कुरई गांव है। मान्यताओं के अनुसार, श्रृंगवेरपुर से नदी पार करने के बाद राम जी इसके दूसरे छोर पर कुरई में नाव से उतरे थे और आगे के सफर की ओर बढ़े थे। इस गांव में एक छोटा-सा मन्दिर भी है, जो स्थानीय श्रुति के अनुसार उसी जगह पर है जहां गंगा को पार करने के बाद राम, लक्ष्मण और सीता जी ने कुछ देर विश्राम किया था। कुरई में नाव से उतरने के बाद श्रीराम प्रयागराज पहुंचे और वहां से यमुना को पार कर उन्होंने अपना अगला पड़ाव चित्रकूट को बनाया। 
चित्रकूट
राजा दशरथ की मृत्यु के बाद जब भरत अपनी सेना लेकर भगवान राम से मिलने जिस जगह पहुंचते हैं, वह चित्रकूट थी। यहीं से वह श्रीराम से उनकी चरण पादुकाएं मांगते हैं और उन्हें ही सिंहासन पर रखकर राज्य चलाने की प्रतिज्ञा लेते हैं। मान्यताओं के अनुसार, चित्रकूट में कामदगिरि भव्य धार्मिक स्थल है जहां भगवान राम रहा करते थे। इस स्थान पर भरत मिलाप मंदिर भी है। तुलसीदास ने भी अपनी रचना में चित्रकूट का जिक्र किया है। उन्होंने लिखा है - 
चित्रकूट के घाट पर भई संतन की भीड़
तुलसीदास चंदन घिसत, तिलक देत रघुबीर

सिद्धा पहाड़

सतना जिले के बिरसिंहपुर क्षेत्र में सिद्धा पहाड़ स्थित है। मान्यताओं के मुताबिक, श्रीराम ने निशाचरों का नाश करने के लिए यहीं प्रतिज्ञा ली थी। रामायण में भी इस पहाड़ का वर्णन किया गया है। यह वही पहाड़ है, जिसका वर्णन रामायण में किया गया है।

अत्रि ऋषि का आश्रम

मध्य प्रदेश के सतना जिले में ही अत्रि ऋषि का आश्रम था। ऋग्वेद के पंचम मंडल के द्रष्टा महर्षि अत्रि हैं। इसीलिए यह मंडल 'आत्रेय मंडल' कहलाता है।  श्रीराम ने उनके आश्रम में भी कुछ वक्त बिताया था। कहते हैं कि माता अनुसुइया अत्रि ऋषि की ही पत्नी थीं। उन्होंने ही माता सीता को पतिव्रता का उपदेश दिया था। अनुसुइया के तपोबल से ही भागीरथी गंगा की एक पवित्र धारा चित्रकूट में प्रविष्ट हुई और 'मंदाकिनी' नाम से प्रसिद्ध हुई।

दंडकारण्य

अत्रि ऋषि के आश्रम में प्रभु श्रीराम कुछ दिन रुके और इसके बाद उन्होंने मध्य प्रदेश व छत्तीसढ़ के जंगलों में रहने का निश्चय किया। जिस जंगल में उन्होंने आश्रय लिया, उसका नाम दंडकारण्य था। दंडक राक्षस के कारण इसका नाम दंडकारण्य पड़ा था। इसकी सीमा की शुरुआत अत्रि आश्रम से ही हो जाती थी। इसके अलग-अलग हिस्सों पर बाणासुर और राम के नाना का अधिकार था। कहते हैं कि आज जो जगह दंतेवाड़ा के नाम से जानी जाती है, उस काल में वही दंडकारण्य था। आजकल यहां गाेंड जनजाति के लोग रहते हैं और यह जगह पूरी तरह नक्सलवाद की चपेट में आ गई है। इसी दंडकारण्य का ही हिस्सा है आंध्रप्रदेश का एक शहर भद्राचलम। गोदावरी नदी के तट पर बसा यह शहर सीता-रामचंद्र मंदिर के लिए प्रसिद्ध है। यह मंदिर भद्रगिरि पर्वत पर है। कहा जाता है कि श्रीराम ने अपने वनवास के दौरान कुछ दिन इस भद्रगिरि पर्वत पर ही बिताए थे।

पंचवटी

श्रीराम जब माता सीता और भाई लक्ष्मण सहित दंडकारण्य से निकले तो उन्होंने कई नदियां, तालाब, पर्वत और वन पार किए। इन सबको पार करते हुए वह नासिक में अगत्स्य मुनि के आश्रम पहुंचे। यह आश्रम नासिक के पंचवटी में था। उन्होंने अपने वनवास का कुछ समय यहां भी बिताया था। प्रसिद्ध कवि मैथिलीशरण गुप्त ने अपनी कविता पंचवटी में इसका वर्णन करते हुए लिखा है - 


पंचवटी की छाया में है, सुन्दर पर्ण-कुटीर बना,

जिसके सम्मुख स्वच्छ शिला पर, धीर वीर निर्भीकमना,

जाग रहा यह कौन धनुर्धर, जब कि भुवन भर सोता है?

भोगी कुसुमायुध योगी-सा, बना दृष्टिगत होता है॥


grasshopper yatra Image

सर्वतीर्थ

नासिक जिले के इगतपुरी तहसील के ताकेड गांव में एक जगह है सर्वतीर्थ। कहते हैं कि यहीं पर रावण ने जटायु का वध किया था और वह आकाश से जमीन पर आ गिरे थे। लहुलुहान अवस्था में वह श्रीराम को इसी जगह के पास मिले थे। यहीं पर रावण में माता सीता का हरण भी किया था। इस जगह को सर्वतीर्थ इसलिए कहा जाता है कि यहीं पर श्रीराम ने जटायु का अंतिम संस्कार कर उनका श्राद्ध तर्पण किया था। 

तुंगभद्रा व कावेरी नदी क्षेत्र

सीता जी के अपहरण के बाद राम जी ने उनकी खोज में सर्वतीर्थ से आगे बढ़ने का फैसला लिया। श्रीराम और लक्ष्मण जी माता सीता को खोजते हुए तुंगभद्र व कावेरी नदियों के क्षेत्र में आ पहुंचे। उन्होंने यहां जगह-जगह सीता जी की खोज की और इसी जगह को कुछ दिन के लिए अपना पड़ाव बना लिया। 

शबरी का आश्रम

माता सीता को खोजते-खोजते श्रीराम तुंगभद्रा और कावेरी नदी क्षेत्रों को पार करते हुए आगे बढ़ते गए। यहीं रास्ते में पम्पा नदी के पास वह शबरी आश्रम में भी रुके। आजकल यह जगह केरल में है। शबरी की जाति भीलनी थी। उन्हें नीच जाति का माना जाता था, लेकिन प्रभु श्रीराम ने उनके प्रेम के वशीभूत होकर उनके जूठे बेर खाए और अपनत्व को इस कहानी को हमेशा के लिए अमर कर दिया। कहते हैं कि केरल का प्रसिद्ध सबरीमाला मंदिर इसी नदी के तट पर स्थित है। 

ऋष्यमूक पर्वत 

शबरी से भेंट के बाद श्रीराम मलय पर्वत और चंदन वनों को पार करते हुए ऋष्म्यूक पर्वत पहुंचे। यहीं उन्होंने सुग्रीव और अपने परम भक्त हनुमान जी से भेंट की। इस पर्वत पर ऋषि मतंग का आश्रम था। सुग्रीव के भाई बालि को ऋषि मतंग ने श्राप दिया था कि अगर वह कभी भी इस पर्वत के निकट आया तो उसकी जान चली जाएगी। सुग्रीव को यह बात पता थी। इसी वजह से जब बालि ने सुग्रीव को किष्किंधा से निकाल दिया तब वह इस पर्वत पर आकर रहने लगे थे। मान्यता है कि यह पर्वत हम्पी में विरुपाक्ष मंदिर के पास ही है। 

कोडीकरई

सुग्रीव और हनुमान को साथ लेकर श्रीराम लंका जाने की दिशा में आगे बढ़े। उनका अगला लक्ष्य था अपनी सेना तैयार करना। यहां से वह कोडीकरई पहुंचे और यहीं उन्होंने अपनी पहली सेना तैयार की। तमिलनाडु के शिवगंगा जिले के कलइयारकोइल ब्लॉक में आज भी कोडीकरई नाम का एक गांव है। 

रामेश्वरम

लंका पर चढ़ाई करने से पहले श्रीराम ने रामेश्वरम में ही समुद्र के किनारे रेत से शिवलिंग बनाकर अपने आराध्य शंकर जी की पूजा की थी। कहते हैं कि आज जो ज्योर्तिलिंग रामेश्वरम में स्थित है, वह श्रीराम का बनाया हुआ ही है। रामेश्वरम तमिलनाडु के समुद्री तट पर बसा हुआ एक शहर है जो हिंदू धर्म में प्रचलित चार धामों में से एक है और यहीं पर भगवान शिव के 12 ज्योर्तिलिंगों में से एक ज्योर्तिलिंग भी है।

धनुषकोडी

धनुषकोडी तमिलनाडु में रामेश्वरम के आगे एक गांव है, जो अब खंडहर में तब्दील हो चुका है। वाल्मीकि के अनुसार, श्रीराम और उनकी सेना ने लगातार तीन दिन खोजबीन की और उस जगह को खोज निकाला जहां से समुद्र के रास्ते श्रीलंका तक पहुंचा जा सकता था, वह जगह धनुषकोडी थी। यहीं पर उन्होंने समुद्र देवता की प्रार्थना की कि वह उन्हें रास्ता दे दें और श्रीलंका तक पहुंचा दें, लेकिन तीन दिन तक प्रार्थना करने के बाद भी समुद्र देवता बाहर नहीं आए। ऐसे में श्रीराम को गुस्सा आया और उन्होंने पूरे समुद्र का पानी सुखाने के लिए अपना धनुष-बाण निकाल लिया। तब समुद्र देवता डर गए और राम जी से माफी मांगते हुए बाहर आए और उन्हें श्रीलंका तक जाने का रास्ता बताया। इस घटना का वर्णन करते हुए गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में लिखा है - 

बिनय न मानत जलधि जड़ गए तीनि दिन बीति।

बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति॥

रामसेतु

तमिलनाडु के दक्षिण पूर्वी तट के किनारे रामेश्वरम और श्रीलंका के उत्तर पश्चिमी तट पर मन्नार द्वीप के बीच चूना पत्थर से बना पुल है रामसेतु। हालांकि, अब यह पुल ऊपर से दिखता नहीं है, लेकिन भौगोलिक प्रमाणों से पता चलता है कि किसी समय यह सेतु भारत और श्रीलंका को भू-मार्ग से आपस में जोड़ता था। यह पुल करीब 18 मील (30 किलोमीटर) लंबा है। कहते हैं कि रामसेतु समुद्र में तैरता हुआ पुल है। इस पुल में जिन पत्थरों का इस्तेमाल होना बताया जाता है, वैसे पत्थर आज भी रामेश्वरम में कई जगह बिकते हैं। इन पत्थरों को आप कितनी भी कोशिश कर लें पानी में नहीं डुबा सकते। बार-बार दबाने पर भी ये उभर का ऊपर आ जाते हैं।

'नुवारा एलिया' पर्वत श्रृंखला 

वाल्मीकि-रामायण के अनुसार, रावण का महल श्रीलंका के बीचो-बीच था। खोजकर्ताओं को ऐसे कई पुरातात्विक अवशेष मिले हैं जिनसे पता चलता है कि नुवारा एलिया पहाड़ियों से करीब 90 किलोमीटर दूर बांद्रवेला की ओर मध्य की ऊंची पहाड़ियों पर सुरंगें और गुफाएं थीं, जिन्हें रावण के महल से जोड़ा जाता है। कहते हैं कि नुवारा एलिया की पहाड़ियों को भी राम जी ने युद्ध से पहले अपना पड़ाव बनाया था।  


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