बच्चों की छुट्टियों में जाएं कूनो नेशनल पार्क घूमने, यहां मिलेगा सबकुछ

अनुषा मिश्रा 02-06-2023 06:32 PM My India
द इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट में बताया गया है कि जून के तीसरे सप्ताह के आझीर तक छह और चीतों को मध्य प्रदेश के कूनो नेशनल पार्क में जंगल में छोड़ दिया जाएगा। जिनमें चार नर और दो मादा शामिल हैं, फिलहाल ये पार्क के भीतर तीन अलग-अलग शिकार बाड़ों में हैं। चीता संचालन समिति ने बुधवार को अपनी पहली बैठक में यह निर्णय लिया। दक्षिण अफ्रीका और नामीबिया से लाए गए 20 चीतों में से तीन और भारत में पैदा हुए तीन शावकों की दो महीने से भी कम समय में पार्क में मौत के बाद समिति का गठन 26 मई को किया गया था। 
देश में चीता प्रजाति को विलुप्त घोषित किए जाने के सात दशक बाद चीतों को भारत में फिर से लाया गया था। 1952 में भारत सरकार द्वारा चीता को आधिकारिक रूप से विलुप्त घोषित कर दिया गया था। इन्हें देश में आखिरी बार 1948 में दर्ज किया गया था, जब छत्तीसगढ़ के कोरिया जिले के साल जंगलों में तीन चीतों को मार दिया गया था। 
मध्य प्रदेश का कूनो नेशनल पार्क वाइल्ड लाइफ लवर्स और एडवेंचर पसंद करने वाले लोगों के लिए एक बेहतरीन जगह है। यहां करधई, खैर और सलाई के जंगल और विशाल घास के मैदानों में दर्जनों वन्य जीवों को घूमते हुए देखना एक कभी न भूलने वाला एक्सपीरियंस साबित हो सकता है। यहां के कुछ घास के मैदान कान्हा या बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व से बड़े हैं। 

चीतों को रखा गया है अलग

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यहां पाया जाने वाला करधई का पेड़, मानसून की पहली बारिश के आने से पहले ही वातावरण में नमी होने से भी हरा हो जाता है। यह क्षेत्र जो आज एक राष्ट्रीय उद्यान बन गया है, लगभग 350 वर्ग किमी के अभयारण्य के रूप में शुरू हुआ। यह कूनो नदी के साथ एक पत्ते के आकार में था। यह नदी आसपास के इलाके को पूरे साल पानी डिटी है और जंगल को की सिंचाई में भी मदद करती है। इसी से इस नेशनल पार्क को अपना नाम मिला है। पार्क बड़े कूनो वन्यजीव प्रभाग के भीतर है जिसका कुल क्षेत्रफल 1235 वर्ग किमी है। फिलहाल 738 वर्ग किलोमीटर के बड़े राष्ट्रीय उद्यान का केवल एक हिस्सा टूरिस्ट्स के लिए खुला है, जबकि चीतों को अलग जगह रखा गया है। 

मध्य प्रदेश के श्योपुर जिले में स्थित यह वन्यजीव अभ्यारण्य वन्यजीव उत्साही, प्रकृति प्रेमियों और रोमांच चाहने वालों के लिए स्वर्ग है। टूरिस्ट्स यहां सुंदर बैकड्रॉप, प्राचीन जंगलों और सुरम्य झरनों के साथ प्रकृति की सुंदरता को करीब से अनुभव कर सकते हैं। चाहे आप एक रोमांचक जंगल सफारी की तलाश कर रहे हों या प्रकृति के बीच सुकून भरा समय बिताना चाहते हों, कुनो नेशनल पार्क आपके लिए एक परफेक्ट जगह है। 

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कूनो नेशनल पार्क में 123 प्रकार के पेड़, 71 प्रकार की झाड़ियां और 32 प्रकार के विदेशी मसाले पाए जाते हैं। पार्क में वनस्पति में मुख्य रूप से साल, ढोक, तेंदू और करधई जैसे पेड़ शामिल हैं, जो इस क्षेत्र में मानसून आने से पहले ही हरे हो जाते हैं। पार्क में पाए जाने वाले अन्य पौधों की प्रजातियों में कचनार, कदम, पलास और खैर शामिल हैं। पार्क में स्तनधारियों की 33 प्रजातियां, सरीसृपों की 33 प्रजातियां, पक्षियों की 206 प्रजातियां, मछलियों की 14 प्रजातियां और उभयचरों की 10 प्रजातियां शामिल हैं। कूनो नेशनल पार्क में भारतीय तेंदुआ, अफ्रीकी चीता, सुस्त भालू, ढोल, भारतीय सियार, भारतीय भेड़िया, जंगली बिल्ली, बंगाल लोमड़ी और धारीदार लकड़बग्घा जैसे जानवर पाए जाते हैं। लंबी चोंच वाले गिद्ध, भारतीय सफेद पीठ वाले गिद्ध, लाल सिर वाले गिद्ध, ब्राउन फिश उल्लू और कई अन्य पक्षी भी देखने को मिलते हैं।

कब बना था पार्क

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कूनो राष्ट्रीय उद्यान / कूनो वन्यजीव प्रभाग और आसपास का क्षेत्र ऐतिहासिक रूप से वन्य जीवन से समृद्ध रहा है। यह क्षेत्र प्राचीन काल में भी घने जंगल के रूप में जाना जाता था। साल 1902 के ग्वालियर रियासत के राजपत्र में दर्ज है कि मुगल बादशाह अकबर ने मालवा क्षेत्र से लौटते समय साल 1564 में शिवपुरी के पास के जंगलों में हाथियों के एक बड़े झुंड पर कब्जा कर लिया था। इस क्षेत्र और इस क्षेत्र के अंतिम शेर को साल 1872 में गुना शहर के पास गोली मारने के लिए जाना जाता है। कूनो का इतिहास शेरों के इतिहास और इस क्षेत्र में वक़्त-वक़्त पर शेरों को किसी न किसी क्षमता में स्थानांतरित करने के विभिन्न प्रयासों के साथ गहराई से बुना गया है। 

शेरों और उनके पुनर्वास के प्रयासों का जिक्र किए बिना इस जगह के इतिहास के बारे में बात करना नामुमकिन है। साल 1904 में लॉर्ड कर्जन को तत्कालीन महामहिम माधवराव सिंधिया, प्रथम, ग्वालियर के राजा ने शिकार के लिए आमंत्रित किया गया था। लॉर्ड कर्जन कूनो की घाटी के जंगल से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने तुरंत राजा को जूनागढ़, गिर से शेर लाने और जंगल में छोड़ने का सुझाव दिया। राजा सिंधिया ने जूनागढ़ के नवाब के साथ अपने स्तर पर सहयोग करने की कोशिश की। उस समय के दौरान उन्होंने डोब कुंड में बड़े पैमाने पर बाड़े बनवाए क्योंकि शेरों को जंगलों में छोड़ने से पहले शेरों के अनुकूल बनाया गया था। उनकी शुरुआती कोशिशें बेकार गयीं। लेकिन नवाब ने इसमें कोई रुचि नहीं ली। बाद में लॉर्ड कर्जन ने राजा को एबिसिनिया (वर्तमान इथोपिया) के शासक को संबोधित करते हुए एक पत्र दिया ताकि वहां से कुछ शेरों को कूनो लाया जा सके। 

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फारसी विशेषज्ञ डी.एम. राजा के मुताबिक मिस्टर ज़ाल इस परियोजना का प्रभारी बनाया गया और 1905 में इस परियोजना के लिए 1 लाख रुपये का बजट दिया गया। राजा के समर्थन से मिस्टर ज़ाल अफ्रीका से 10 शेर लाने में सफल हुए। हालांकि, बॉम्बे हार्बर पहुंचने तक उनमें से तीन की मौत हो गई। बचे हुए 7 शेरों में से 3 नर थे जबकि शेष 4 मादा थे। राजा ने नर शेरों को बुंदे, बांके और मजनू व मादा शेरों को रमाइली, रामप्यारी, बिजली और गैंडी नाम दिया। बाद में इन शेरों को कूनो की जगह शिवपुरी के जंगलों में छोड़ दिया गया। दुर्भाग्य से ये शेर साल 1910 से 1912 के बीच जानवरों का शिकार करने के साथ आदमखोर भी बन गए। इन घटनाओं के कारण परियोजना विफल हो गई। 

कूनो नदी के आसपास का क्षेत्र पुराने समय से ही जैव विविधता से समृद्ध रहा है। सजे पास पहाड़गढ़ में 30,000 साल पुराने गुफा चित्रों में कई जंगली जानवरों को बने हुए देखा जा सकता है। मध्य प्रदेश सरकार ने इस जगह के महत्व को देखते हुए 1981 में लगभग 3300 वर्ग किमी के एक बड़े वन क्षेत्र के भीतर लगभग 345 वर्ग किमी के कूनो वन्यजीव अभयारण्य की स्थापना की। बाद में 891 वर्ग किमी के बफर एरिया को इसमें और जोड़ा गया। 

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