100 साल से भी पुराने, खाने के ठिकाने
लियोपोल्ड कैफे, मुंबई
1871 से अपने बेहतरीन स्वाद से लोगों को दीवाना बनाए हुए है मुंबई का लियोपोल्ड कैफे। यह मुंबई का सबसे पुराना ईरानी कैफे है। मुंबई के लोगों के लिए यह कैफे एक लैंडमार्क की तरह है, जिसके बारे में कहा जाता है कि यह जितना पुराना हो रहा है, उतना ही बेहतर भी। ग्रेगरी डेविड रॉबर्ट्स के नॉवेल ‘शांताराम’ में वह इसी कैफे में बैठकर अपने अतीत को याद करते हैं। यही वह कैफे है जो 2008 में हुए आतंकवादी हमले को भी झेल गया था। इसकी दीवारों पर आज भी उस हमले में चली गोलियों के निशान हैं। आपको कॉफी चाहिए या बीयर, इंडियन फूड चाहिए या चायनीज, यहां आपको सब मिलेगा और वह भी बेहद ही सलीके के साथ। कभी मौका मिले तो 150 साल पुराने इस कैफे का एक चक्कर जरूर लगाइएगा।
टुंडे कबाबी, लखनऊ
कबाब खाने के शौकीनों के लिए लखनऊ का टुंडे कबाबी, जन्नत से कम नहीं है। 1905 में लखनऊ के हाजी मुराद अली ने गोल दरवाजा के पास एक कबाब पराठे की दुकान शुरू की और धीरे-धीरे यह लखनऊ की पहचान बन गई। हाजी मुराद अली का एक हाथ नहीं था और इसी से इस दुकान को टुंडे कबाबी नाम मिल गया। आप लखनऊ के चौक में कदम रखेंगे तो यहां बनने वाले कबाब के मसालों की खुशबू आपको दूर से ही अपनी ओर खींच लेगी। यहां के गुलावटी कबाब में कच्चे पपीते सहित 125 इंग्रेडिएंट्स डाले जाते हैं, जो इसे ऐसा स्वाद देते हैं कि आपने अगर एक बार खा लिया तो दोबारा जब भी आप लखनऊ आएंगे, बिना गुलावटी कबाब खाए वापस नहीं जाएंगे।
इंडियन कॉफी हाउस, कोलकाता
इंडियन कॉफी बोर्ड ने 1936 में पहला इंडियन कॉफी हाउस मुंबई में खोला था। इसके बाद भारत में इसके कई आउटलेट्स खुले। इंडियन कॉफी हाउस उस वक्त विद्वानों, स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों, समाज सेवियों, क्रांतिकारियों और बोहेमियन्स की मीटिंग्स का पसंदीदा ठिकाना हुआ करता था। हालांकि, 1950 में इसका बिजनेस धीमा पड़ने लगा और इंडियन कॉफी बोर्ड ने इसे बंद करने का फैसला ले लिया। इससे जिन कर्मचारियों की नौकरी चली गई, वे एक साथ आए और उन्होंने कर्मचारी सहकारी सोसाइटी बनाकर खुद ही कॉफी हाउस चलाना शुरू कर दिया। आज भारत में इंडियन कॉफी हाउस के 400 से भी ज्यादा आउटलेट्स हैं जिन्हें 13 को-ऑपरेटिव सोसाइटीज मैनेज कर रही हैं। इन 400 आउटलेट्स में जो सबसे ज्यादा फेमस इंडियन कॉफी हाउस कोलकाता की इंडियन कॉफी हाउस ब्रांच है, जिसे 1942 में कोलकाता की कॉलेज स्ट्रीट में प्रेजीडेंसी कॉलेज के सामने खोला गया था। आज भी यह कैफे यहां के लोगों का पसंदीदा ठिकाना है। अगर आपको भी पुरानी दिनों के साथ शानदार कॉफी पीनी है तो एक बार यहां का रुख जरूर करिएगा।
ग्लेनरीज, दार्जीलिंग
ब्रिटिश काल से ही अपने शानदार नाश्ते के लिए मशहूर रहा ग्लेनरीज आज भी दार्जीलिंग आने वाले लोगों के लिए किसी ट्रीट से कम नहीं है। दार्जीलिंग के माल रोड पर वाडो नाम के एक इटैलियन शख्स से इस बेकरी कम रेस्त्रां की शुरुआत की थी। फ्रेंच खिड़कियों से सजे इस रेस्त्रां की छत पर बैठकर जब आप शहर की खूबसूरती को देखते हैं तो इस एक्सपीरियंस को शब्दों में बयां करना मुश्किल हो जाता है। यहां के टार्ट्स, मार्जीपैन्स की सदियों पुरानी रेसिपीज आज भी लोगों को अपना दीवाना बनाए हैं और यहां की चॉकलेट्स तो किसी बोनस से कम नहीं हैं। एक असली फायरप्लेस, एक विंटेज टाइपराइटर और एक लाल टेलीफोन बूथ 100 साल से भी ज्यादा पुराने ग्लैनरीज बेकरी एंड कैफे की सुंदरता में चार-चांद लगाने का काम करते हैं।
शेख ब्रदर्स बेकरी, गुवाहाटी
ब्रिटिश कालीन अफसरों से लेकर भारत की आजादी के नेताओं तक सब गुवाहाटी की शेख ब्रदर्स बेकरी के स्वाद के दीवाने थे। 1885 में गोहाटी बेकरी के नाम से इसकी शुरुआत पश्चिम बंगाल के हुगली जिले से असम आए शेख गुलाम इब्राहिम ने की थी। उनके परिवार की कलकत्ता की मिर्जापुर स्ट्रीट में भी अपनी बेकरी थी और यही वजह थी कि कंस्ट्रक्शन के बिजनेस के लिए गुवाहाटी आए इस परिवार ने यहां बेकरी की अहमियत समझ ली थी। 24 नवंबर 1923 को शिलॉन्ग में रहने वाले असम के तत्कालीन ब्रिटिश गर्वनर जॉन हेनरी केर ने अपनी डायरी में लिखा था कि आज सड़क की मरम्मत होने के कारण गोहाटी बेकरी से ब्रेड नहीं आ पाई। लोकल ब्रेड बहुत चिपचिपी और सख्त हैं, गोहाटी बेकरी की ब्रेड सॉफ्ट होती हैं। कहते हैं कि जवाहर लाल नेहरू को भी शेख ब्रदर्स बेकरी के चीज़ स्ट्रॉज बहुत पसंद थे। यही नहीं इंदिरा गांधी जब भी गुवाहाटी जाती थीं, वह यहां से अपनी पसंदीदा ब्रेड जरूर पैक कराती थीं। आज भी यह बेकरी अपने स्वाद के लिए मशहूर है। अब यहां के लोगों को इस बेकरी के बर्गर और हॉटडॉग्स खूब भाते हैं।
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